दरअसल, यह उम्र का वह दौर है जब आदर्श, सच्चाई, इंसानियत जैसे शब्दों से आपका मोहभंग होने लगता है. आप देखते हैं कि आपके आस-पास जो दुनिया है, वहां ऐसे शब्दों का कोई वजूद नहीं. जो होना चाहिए और जो है उसके बीच का अंतर आपको निराश करता है और भाग्यवादी बनाता है.
- एक ब्लॉग से
बड़ी उम्र के लोगों में मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के प्रति मैं बहुत पहले से (कम से कम 30 वर्षों से) सशंकित रहा हूँ. हालांकि ऐसा कोई अनुभव या चरित्र मुझे याद नहीं आता जो मेरी इस शंका का जनक हो.
"अनुभव ने सीख ली थोड़ी बेईमानी"
"अनुभव ने सीख ली थोड़ी बेईमानी"
- नेट पर एक कविता से
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